नया साल: खुशियों का झूठा जश्न या इंसानियत का असली इम्तिहान?
तहलका टुडे टीम/ अली मुस्तफा
नया साल आया, और हर जगह खुशियों का माहौल था। शहर की ऊँची इमारतों में रंग-बिरंगी रोशनियाँ जगमगाती थीं, हर गली में पार्टी की धूम थी, और लोग नाच-गाने में मस्त थे। हर किसी के चेहरे पर मुस्कान थी, जैसे दुनिया की सारी खुशियाँ इस पल में समेट ली गई हों। लेकिन इसी खुशियों के बीच कुछ ऐसा था, जो हमारी आँखों से ओझल था—वह थी ठंडी रातों में फुटपाथ पर कांपती ज़िंदगियां। गरीब, भूखा, बिना किसी आशा के जीता हुआ इंसान, जो सर्दी से ठिठुरते हुए भी भगवान से एक ही दुआ करता था—“हे ईश्वर, हम भूखे हैं, ठंड से कांप रहे हैं, फिर भी तुझ पर भरोसा करते हैं। हमारी तकलीफें तुझे परेशान न करें, हमें हर दिन एक उम्मीद दीजिए।”
उसी समय, कुछ दूरी पर बियर की तेज़ रफ्तार कारें, नशे में धुत गाड़ियाँ, और बाइक स्टंट्स दिखाते युवा, अपनी मस्ती में खोए हुए थे। नशा, मस्ती, और बेफिक्री का माहौल था, जो हमारी सच्चाई से बहुत दूर था। गरीब की ठंड में कांपती हुई हड्डियाँ और उसके दांत जो कटकटा रहे थे, वह उस पल का आइना बनकर सामने आ रहे थे। वहीं दूसरी तरफ तेज़ रफ्तार गाड़ियाँ, बियर की बोतलें, और शराब के नशे में झूमते लोग अपनी दुनिया में खोए हुए थे।
यह दृश्य हमें यह सवाल करने पर मजबूर करता है कि क्या यही हमारी तरक्की का चेहरा है? क्या हम अपने आसपास हो रही इन जिंदगियों के दर्द को अनदेखा कर सिर्फ अपने सुख-संसार में जीने का हक रखते हैं?
क्या नए साल का मतलब सिर्फ जश्न और मस्ती है या यह हमारी इंसानियत को परखने का समय है?
ठिठुरती रातों की अनसुनी चीखें
गरीब अपने ठिठुरते शरीर को किसी कंबल से ढकने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसके पास न कोई गर्म कपड़े थे, न खाना। उसकी आँखों में सवाल था—“क्या ये दुनिया सिर्फ उन्हीं के लिए है, जिनके पास पैसा है? क्या किसी गरीब की कोई अहमियत नहीं?” और हम? हम अपनी गाड़ियों में शराब पीते हुए, तेज़ म्यूजिक बजाते हुए, अपने जश्न में खोए हुए थे। क्या हमें यह नहीं समझना चाहिए कि इस समाज में हमारे जश्न के साथ-साथ कुछ और ज़िंदगियाँ भी जी रही हैं, जिनकी आवाज़ हमें कभी नहीं सुनाई देती?
नसीहत और जिम्मेदारी का रास्ता
हमने जश्न और मस्ती को जीवन का हिस्सा मान लिया है, लेकिन इस पर विचार करना भी जरूरी है कि इस जश्न के आस-पास कितनी जिंदगियाँ जूझ रही हैं। सर्द रातों में फुटपाथ पर सोते लोग हमारी मदद के इंतजार में हैं। उनके पास बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं हैं। जबकि हम मस्ती की हद पार करते हुए अपने लिए और अपने दोस्तों के लिए नशे का सामान खरीदने में मसरूफ हैं। क्या यह हमारी जिम्मेदारी नहीं है कि हम दूसरों का दर्द समझें और उन्हें मदद दें?
नए साल का जश्न सिर्फ मस्ती और नशे तक सीमित नहीं होना चाहिए। यह समय है आत्ममंथन का, यह सोचने का कि हम समाज में किस स्थान पर खड़े हैं और हमारे छोटे से कदम कितनी जिंदगियाँ बदल सकते हैं। क्या हम अपना जश्न उन गरीबों के लिए नहीं बदल सकते, जो ठंड से कांप रहे हैं और भूख के मारे चुपचाप अपनी तकलीफों को सह रहे हैं?
एक नया संकल्प: इंसानियत को जिंदा रखना
इस नए साल को यादगार बनाना है तो हमें अपनी खुशियों को दूसरों की खुशियों में बदलने की कोशिश करनी चाहिए। हमें समझना होगा कि सच्ची खुशी तब है जब हम अपने आसपास के दुख-दर्द को महसूस करें और उसे दूर करने के लिए कदम उठाएँ।
क्या हम उन भूखों को खाना दे सकते हैं?
क्या हम गरीबों के लिए कंबल, गर्म कपड़े और जरूरत की चीज़ें मुहैया कर सकते हैं?
क्या हम अपनी नशे की आदतों को छोड़कर, दूसरों को भी जीवन का सही रास्ता दिखा सकते हैं?
इंसानियत का असली मतलब यही है कि हम अपने सुख-संसार को तब तक पूरा नहीं मानते, जब तक हमारे आसपास हर व्यक्ति सुखी न हो।
आइए, इस नए साल में हम यह संकल्प लें कि हम सिर्फ अपनी खुशियाँ ही नहीं, बल्कि दूसरों की मदद भी करेंगे। हमारा जश्न तभी सच्चा होगा, जब हम इसे सादगी, सेवा और इंसानियत का रूप देंगे।
याद रखें, किसी गरीब की मदद से बड़ा कोई जश्न नहीं होता।