नई दिल्ली/तहलका टुडे डेस्क/सैयद रिज़वान मुस्तफ़ा
जब कोई राष्ट्र अपनी कूटनीति को आत्मा और इतिहास से जोड़ता है, तो संबंध महज़ राजनीतिक समझौते नहीं रहते—वो विरासत बन जाते हैं। ईरान के विदेश मंत्री सैयद अब्बास अराघची की भारत यात्रा न सिर्फ एक रणनीतिक संवाद है, बल्कि यह भारत और ईरान के मध्य सदियों पुराने रूहानी रिश्तों की पुनःप्रस्तुति है।
राष्ट्रपति भवन की गरिमामयी भेंट: कूटनीति को मिला आत्मीय आयाम
अराघची ने अपने दौरे के अहम क्षण में भारत की महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मु से राष्ट्रपति भवन में शिष्टाचार भेंट की। यह मुलाकात औपचारिक होते हुए भी अत्यंत भावनात्मक और ऐतिहासिक थी। दोनों नेताओं ने भारत-ईरान संबंधों की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर साझा विश्वास, सहयोग और सांस्कृतिक आदान-प्रदान की दिशा में प्रतिबद्धता जताई।
राष्ट्रपति मुर्मु ने अराघची का स्वागत करते हुए कहा, “भारत और ईरान की मैत्री सिर्फ सीमाओं या समझौतों तक सीमित नहीं, बल्कि आत्मा और संस्कृति में गुथी हुई एक साझी विरासत है।”
लखनऊ से सटे किन्तूर: मिट्टी जो क्रांति को जन्म देती है
इस मुलाकात को ऐतिहासिक संदर्भ तब और गहरा बना देता है जब हम जानें कि ईरान की इस्लामी क्रांति के जनक आयतुल्लाह इमाम रुहुल्लाह खुमैनी के पूर्वज भारत के बाराबंकी जिले के ‘किं्तूर’ गांव से थे। यह गांव लखनऊ, जो कभी अवध के नवाबों की नगरी थी और आज रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का संसदीय क्षेत्र है, के नज़दीक स्थित है।
किन्तूर की मिट्टी ने जिस वंश को जन्म दिया, वही वंश आगे चलकर ईरान की रूहानी क्रांति का झंडाबरदार बना। सैयद अहमद मुसवी हिंदुस्तानी, जो इमाम खुमैनी के पूर्वज थे, यहीं से ईरान के खुमैन क्षेत्र की ओर गए और वहां इस्लामी क्रांति की मशाल जलाई। यह भारत और ईरान के बीच एक ऐसा अदृश्य आध्यात्मिक पुल है जो किसी भी राजनीतिक दस्तावेज़ से कहीं अधिक गहरा है।
संयुक्त आयोग की बैठक में दिखा सामरिक सहयोग का भविष्य
इस ऐतिहासिक यात्रा के दौरान, भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर और अराघची ने 20वीं भारत-ईरान संयुक्त आयोग बैठक की सह-अध्यक्षता की। इस बैठक में चाबहार बंदरगाह के विकास, ऊर्जा व्यापार, फारसी खाड़ी क्षेत्र की स्थिरता, सांस्कृतिक सहयोग, और क्षेत्रीय संपर्क पर विशेष बातचीत हुई।
डॉ. जयशंकर ने कहा,
“प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति मसूद पेजेशकियान की कज़ान और अप्रैल 2025 की बातचीतों ने हमारे रिश्तों को दिशा दी है। यह यात्रा उस विश्वास का प्रतीक है कि भारत और ईरान न केवल साझेदार हैं, बल्कि साझी आत्मा के वाहक हैं।”
75 वर्षों की मैत्री: लेकिन जड़ें हैं सदियों पुरानी
भारत और ईरान के संबंधों की आधिकारिक संधि को 75 वर्ष पूरे हो चुके हैं, लेकिन इस दोस्ती की जड़ें हज़ार साल पुरानी तहज़ीब, भाषा, और सूफी-संस्कृति में हैं। फारसी भाषा ने भारत के दरबारों से लेकर साहित्य तक में जो स्थान पाया, वही स्थान भारतीय संतों, फकीरों और विद्वानों ने ईरान की फिजा में भी अर्जित किया।
यह वही रिश्ते हैं जो मौलाना रूमी, अमीर खुसरो, और ग़ालिब के कलामों से होते हुए आज चाबहार पोर्ट, दक्षिण एशिया में रणनीतिक संवाद, और इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर तक पहुँचे हैं।
भारत की सरज़मीं से इमाम खुमैनी के ईरान तक: रिश्तों की रूहानी परछाईं
इस यात्रा ने एक बार फिर स्मरण कराया कि भारत केवल एक भूभाग नहीं, बल्कि एक धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र है, जिसकी मिट्टी से उठकर विचारों की लहरें दुनिया के कई हिस्सों में बदलाव का कारण बनीं।
सैयद अब्बास अराघची, जब भारत आए, तो उन्होंने महज़ राजनयिक नहीं बल्कि एक वंशज, एक उत्तराधिकारी और एक सेतु की तरह अपनी भूमिका निभाई — जो खुमैनी की विरासत को जन्म देने वाली धरती से जुड़ाव को पुनर्जीवित कर गया।
जब रिश्ते रूह से जुड़ते हैं, तो वक्त और दूरी बेमानी हो जाती है
भारत और ईरान के बीच यह विशेष अवसर, जिसमें आधिकारिक संवाद के साथ-साथ आत्मीय मुलाकातें, ऐतिहासिक स्मरण और सांस्कृतिक जुड़ाव की झलक शामिल रही, यह दर्शाता है कि यह रिश्ता सिर्फ दो देशों का नहीं, बल्कि दो सभ्यताओं, दो आत्माओं और एक साझा अतीत का रिश्ता है।