तहलका टुडे टीम
अमेरिका कभी भारत पर व्यापारिक पाबंदियाँ लगाता है, कभी वीज़ा फीस बढ़ाता है, कभी चाबहार पोर्ट जैसे रणनीतिक प्रोजेक्ट में अड़ंगा डालता है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इन तमाम दबावों और अपमानों के बाद भी भारत का युवा अमेरिकी ब्रांड्स — एप्पल, अमेज़न, फेसबुक, इंस्टाग्राम — पर फ़िदा नज़र आता है।
क्या यह आधुनिकता की चाह है? या फिर मानसिक गुलामी?
भारत-अमेरिका व्यापार: विरोधाभास की कहानी
📊 आँकड़े बताते हैं:
- 2024-25 में भारत ने अमेरिका को $86.51 अरब का निर्यात किया (पिछले साल $77.52 अरब था)।
- उसी अवधि में अमेरिका से भारत ने $45.33 अरब का आयात किया।
- यानी भारत को लगभग $41.18 अरब का व्यापार अधिशेष हुआ।
👉 बावजूद इसके, अमेरिका समय-समय पर भारत पर पाबंदियाँ लगाता रहा है — तकनीकी निर्यात पर रोक, वीज़ा प्रतिबंध, और व्यापारिक टैक्स बढ़ोतरी तक।
भारतीय युवा और डिजिटल दीवानगी
- 85.5% घरों में स्मार्टफोन, 86.3% घरों में इंटरनेट।
- 99.5% युवा (15-29 वर्ष) ऑनलाइन लेन-देन के लिए UPI का इस्तेमाल करते हैं।
- ग्रामीण भारत में 14-16 वर्ष के किशोरों में 82.2% स्मार्टफोन का इस्तेमाल जानते हैं, लेकिन केवल 57% शिक्षा के लिए इस्तेमाल करते हैं।
- सोशल मीडिया के लिए इस्तेमाल करने वालों की संख्या 76% है।
👉 यानी शिक्षा से ज़्यादा सोशल मीडिया और लाइफ़स्टाइल ब्रांड्स में निवेश!
एप्पल का आकर्षण: क्यों?
- सामाजिक पहचान: iPhone = “स्टेटस सिंबल”
- सोशल मीडिया प्रभाव: इंस्टाग्राम/यूट्यूब पर “बेहतर फोटो-वीडियो” की चाह।
- मार्केटिंग और ग्लैमर: विदेशी ब्रांड = श्रेष्ठता का प्रतीक।
- स्वदेशी विकल्पों की कमी: भारतीय कंपनियाँ अब तक उसी स्तर की ब्रांडिंग और प्रीमियम अपील नहीं बना सकीं।
अमेरिका की कैंसर जैसी नीतियाँ
- वीज़ा पाबंदी: भारतीय IT प्रोफेशनल्स पर H-1B वीज़ा के लिए $100,000 वार्षिक शुल्क का प्रस्ताव।
- चाबहार पर अड़ंगा: ईरान के ज़रिए भारत-मध्य एशिया व्यापार को रोकने की कोशिश।
- टेक्नोलॉजी ब्लॉकेज: रक्षा और सैटेलाइट टेक्नोलॉजी पर लगातार प्रतिबंध।
- डॉलर की निर्भरता: भारत से पैसा बाहर जाना और अमेरिकी कंपनियों को और ताक़त मिलना।
👉 अमेरिका एक तरफ भारत पर दबाव डालता है, दूसरी तरफ अपने ब्रांड्स से भारतीय युवा को कंज़्यूमर-कॉलोनी बना देता है।
खतरे और निहितार्थ
- मानसिक गुलामी: “विदेशी = श्रेष्ठ” मानसिकता।
- आर्थिक नुकसान: अरबों डॉलर का विदेशी ब्रांड्स पर खर्च।
- स्थानीय उद्योग की कमजोरी: स्वदेशी स्टार्टअप्स को पर्याप्त सपोर्ट नहीं।
- सांस्कृतिक असर: खान-पान, लाइफ़स्टाइल और सोच पर अमेरिकी मॉडल का कब्ज़ा।
समाधान: स्वदेशी ही रास्ता
- सरकार के स्तर पर:
- स्वदेशी ब्रांड्स को टैक्स रियायत और सब्सिडी।
- स्थानीय टेक्नोलॉजी कंपनियों को सपोर्ट।
- सोशल मीडिया/ऐप्स का देशी विकल्प खड़ा करना।
युवा के स्तर पर:
- iPhone पर फ़िदा होने की बजाय भारतीय ब्रांड्स को अपनाना।
- सोशल मीडिया की बजाय शिक्षा और नवाचार पर स्मार्टफोन का उपयोग।
समाज के स्तर पर:
- “स्वदेशी अपनाओ” आंदोलन को नए रूप में पुनर्जीवित करना।
- विदेशी ब्रांड्स को “गुलामी” का प्रतीक मानने की बहस छेड़ना।
आज अमेरिका भारत को बार-बार पाबंदियों, टैक्स और दबाव से झुकाने की कोशिश करता है। फिर भी भारतीय युवा उसकी कंपनियों और ब्रांड्स का सबसे बड़ा बाज़ार बन गया है।
👉 सवाल सिर्फ इतना है: क्या भारत की जवानी आधुनिकता के नाम पर एप्पल की दीवानगी में फँसकर अपनी मानसिक और आर्थिक आज़ादी खो देगी?
या फिर समय रहते स्वदेशी और आत्मनिर्भरता की राह चुनकर अमेरिका की “कैंसर फैलाने वाली नीतियों” को करारा जवाब देगी?
“दीवानगी नहीं, आत्मनिर्भरता अपनाओ।”