“वारिस अली शाह की रूह पुकार रही है: देवा मेला, दिखावे से निकलकर इंसानियत का उजाला बने”
— त्रिवार्षिक चुनाव के बाद देवा मेला समिति का कोरम हुआ पूरा, मगर मेले की अस्मत, मकसद और मोहब्बत फिर क्या रहेंगी हाशिए पर?
तहलका टुडे टीम
देवा शरीफ, बाराबंकी —हज़रत हाजी सैय्यद वारिस अली शाह रहमतुल्लाह अलैह — एक ऐसा नाम, जिनकी जिंदगी और तालीम का हर लफ़्ज़ इंसानियत, मोहब्बत, बराबरी और खुदा की बंदगी से भरा हुआ है। जिनके दरबार पर न मज़हब की दीवारें थीं, न मज़लूम के लिए दरवाज़े बंद। जिनकी नज़रों में अमीर-गरीब, हिंदू-मुसलमान, शिया-सुन्नी — सब इंसान थे। और यही वजह थी कि देवा मेला कौमी एकता का सबसे बड़ा प्रतीक बन गया ।
मगर अफ़सोस, आज वही मेला एक बार फिर उन रस्मों, रसूख़ और रौनकों की भेंट चढ़ गया है, जिनसे हज़रत वारिस अली शाह की रूह तड़प जाती होगी ।
त्रिवार्षिक चुनाव-2025 सम्पन्न: जीत की गूंज या मजार की सिसकियाँ?
हाल ही में सम्पन्न हुए देवा मेला एवं प्रदर्शनी समिति के चुनाव में मतदान के आधार पर पूर्ण बहुमत से जो सदस्य चुने गए हैं, वे नामी-गिरामी खानदानों से ताल्लुक रखते हैं:
- महारानी मृणालिनी सिंह (रामनगर स्टेट) — मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की बेटी
- चौधरी फैज़ महमूद ‘दुर्री’ — कुर्सी घराने से वाबस्ता
- जनाब महबूब उर रहमान किदवई — साबिक़ विधायक रिज़वान उर रहमान किदवई साहब के साहबज़ादे
- कुँवर सानिध्य बली — दरियाबाद स्टेट से ताल्लुक रखते हैं
इनका समाज में रसूख़ और राजनीतिक पहुँच निर्विवाद है, लेकिन सवाल ये है — क्या इनका सरोकार मजार की अस्मत और वारिस शाह की तालीमात से भी है?
कहीं फिर न बन जाए देवा मेला — दावतों, डांस और दिखावे का मेला?
जैसा कि अक्सर होता आया है — बड़े-बड़े दावत कैंप, खेल-कूद, नाच-गाना, और VIP गेस्ट के लिए विशेष व्यवस्था। आम जन की ज़रूरतें, गरीब की पुकार, और वारिस अली शाह की वसीयत नारे बनकर रह जाती हैं।
“मक़सद था मोहब्बत का मेला, बन गया मुनाफ़ा और मसर्रत का मंजर”
काश ऐसा होता… देवा मेला इंसानियत और इंकलाब का मेला बनता
एक नया सपना — देवा मेला बने रोशन जहनों की परवरिशगाह
सोचिए अगर देवा मेला में होता:
1. “टॉपर सम्मान समारोह और प्रेरणा गोष्ठी” — जहां हर बच्चे को मिले उड़ान
मेला में हर साल ज़िले के बोर्ड, यूनिवर्सिटी और प्रतियोगी परीक्षाओं में अव्वल आने वाले छात्रों को एक भव्य मंच पर सम्मानित किया जाए। मंच पर ज़िले के IAS, IPS, PCS, न्यायिक अधिकारी, डॉक्टर, प्रोफेसर आकर अपने संघर्ष की कहानियां सुनाएं।
“मैं भी तुम्हारी तरह एक छोटे गांव से था, लेकिन हिम्मत नहीं हारी…”
जब ऐसा अफ़सर कहेगा, तो देवा के मैदान में खड़ा हर बच्चा कहेगा —
“मैं भी कुछ कर सकता हूं!”
2. “कानूनी सेवा शिविर” — जहां कानून सिर्फ किताबों में नहीं, ज़मीन पर नज़र आए
देवा मेला में विधिक सेवा प्राधिकरण के माध्यम से फ्री लीगल एड कैम्प, महिला अधिकार, श्रमिक कानून, साइबर अपराध, घरेलू हिंसा और बाल विवाह जैसे मुद्दों पर सेमिनार हों। जिससे समाज का हर व्यक्ति अपने हक़ से वाक़िफ हो और कानून का डर नहीं, सहारा महसूस करे।
3. “सुधार की कहानी, खुद की ज़ुबानी” — बदमाश कैसे शरीफ़ बना?
एक ऐसा सेमिनार जहां वे युवा बोलें जो कभी अपराध की ओर बढ़े थे लेकिन फिर शिक्षा, समाज सेवा या पुलिस और न्याय प्रणाली की मदद से सुधार की राह पर लौटे।
“मैंने जब पहली बार हथियार छोड़ा और किताब उठाई, तो लगा जैसे नई ज़िंदगी मिल गई…”
ऐसी गवाही सुनकर मेला में मौजूद हर गुमराह नौजवान को नई दिशा मिल सकती है।
4. “तकनीक और तरक्की मेला” — जहाँ गांव का बच्चा भी सीखे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस
टेक्नोलॉजी एक्सपो, ड्रोन शो, रोबोटिक्स वर्कशॉप और डिजिटल साक्षरता कैम्प — ताकि देवा के मेले से निकलकर गांव का बच्चा भी IIT और ISRO का सपना देख सके।
5. “राष्ट्रीय एकता मंच” — गंगा-जमुनी तहज़ीब का जश्न
हिन्दू-मुस्लिम, सिक्ख-ईसाई, हर जाति, हर धर्म के लोगों द्वारा मिलकर वारिस अली शाह की मज़ार के पास इंसानियत की शपथ ली जाए। संगीत, शायरी, कव्वाली और सूफ़ियाना कलाम के ज़रिए भाईचारे का पैग़ाम फैलाया जाए।
क्या देवा मेला बन सकता है ऐसा आइना, जिसमें सिर्फ रौनक नहीं, बल्कि रौशनी दिखे?
इस मेला की ज़िम्मेदारी बाराबंकी के ज़िलाधिकारी (DM) और अपर ज़िलाधिकारी (ADM) के पास है — और उनके पास वह शक्ति भी है कि देवा को महज़ एक मेला नहीं, बल्कि “रूहानी रिवाइवल और समाजी इंकलाब” का केंद्र बना दें।
हज़रत वारिस अली शाह की रूह यही चाहती है…
कि कोई भूखा न सोए।
कोई बच्चा स्कूल छोड़ न दे।
कोई नौजवान गलत राह न पकड़े।
कोई महिला ज़ुल्म की शिकार न बने।
और कोई ज़िंदगी, मायूसी से हार न माने।
एक पुकार, एक गुज़ारिश — इस बार देवा मेला हो कुछ अलग।
देवा मेला बने, देवा की रूह का सच्चा अक्स।
वारिस अली शाह की शख्सियत: एक सूफी, जो सिर्फ मज़ार में नहीं, विचार में जिंदा है
हज़रत वारिस अली शाह ने अपने वालिद हज़रत सैय्यद क़ुर्बान अली शाह की याद में ये मेला शुरू कराया था — मगर मकसद सिर्फ मेला लगवाना नहीं था, बल्कि मजलूमों की आवाज़ बनना था। उनका संदेश था:
“मज़ार पर दीया जलाने से रौशनी बाहर नहीं, भीतर होनी चाहिए।”
आज ज़रूरत है कि नई समिति अपने रसूख से पहले रूह की रोशनी को पहचानें। वो मेला बनाएँ, जहाँ कोई भूखा न लौटे, जहाँ किसी औरत की इज़्ज़त दांव पर न हो, जहाँ बच्चों की आंखों में सपना हो — सिस्टम में जगह बनाने का, समाज में बदलाव लाने का।
आख़िरी बात — क्या रिवायतों से उठकर रविश बदलेगी?
देवा मेला और प्रदर्शनी समिति की बागडोर फिर संभाली गई है, मगर सवाल वही पुराना है —
“क्या मजार की अस्मत बचेगी या फिर तमाशा ही ताज बनेगा?”
हज़रत वारिस अली शाह की रूह आज भी इंतज़ार में है — इंसाफ़, इंकलाब और इंसानियत के मेले के लिए..