तहलका टुडे/सैयद रिज़वान मुस्तफ़ा
“वो सिर्फ गुड़िया से खेल रही थी…
ना कोई भाषा जानती थी,
ना सरहदें समझती थी,
ना युद्ध की राजनीति।
फिर भी मर गई — क्योंकि उसका जन्म ग़ाज़ा में हुआ था।”
ग़ाज़ा के दीर अल-बला शहर की टूटी सड़क के एक कोने में पड़ी थी एक नन्ही लाश — हाथों में गुड़िया, आँखों में अधूरी मुस्कान। वो बच्ची, जो अपने सपनों के रंगों में खोई हुई थी, आज इज़राइली बमबारी की राख में तब्दील हो चुकी है। उसकी मौत सिर्फ एक बच्ची की मौत नहीं थी — वो दरअसल पूरी मानवता के ज़मीर का जनाज़ा था।
ग़ाज़ा अब शहर नहीं रहा, वो एक खुली कब्रगाह बन चुका है। वहां अब आकाश से आशा नहीं, मौत बरसती है। दीवारें टूटती हैं, घर ध्वस्त होते हैं, और सबसे भयावह — दिल टुकड़ों में बिखरते हैं। लेकिन क्या सबसे ज़्यादा पीड़ा उन नन्हें कंधों पर नहीं है, जो बोझ उठाने के लिए बने ही नहीं थे?
जब बचपन सवाल बन जाए
चार साल की एक बच्ची की लाश जब अस्पताल लाई गई, तो उसका भाई सिर्फ इतना पूछ सका — “उसने क्या किया था? वो तो पत्थर भी नहीं उठा सकती थी…”
उसका सवाल सिर्फ एक भाई का नहीं था, वो एक पूरी नस्ल का कराहता हुआ प्रश्न था — जो इज़राइल और उसकी शह पर खड़ी दुनिया से पूछ रहा है कि “क्या मासूमियत भी अब दुश्मन हो चुकी है?”
सिर्फ पिछले एक महीने में 800 से अधिक बच्चों की लाशें गिन चुकी है ग़ाज़ा की ज़मीन। स्कूल अब शरणार्थी शिविर हैं, खेल के मैदान अब कब्रगाह बन चुके हैं, और झूले — अब शून्यता में झूल रहे हैं। युद्ध की आँच में सबसे ज़्यादा झुलसे हैं वो फूल, जिन्हें खिलना था — न कि जलना।
युद्ध नहीं, यह मासूमियत का संहार है
इज़राइल का यह हमला केवल हमास से बदला लेने की कार्रवाई नहीं है — यह उस पीढ़ी का संहार है जो कभी ग़ाज़ा को फिर से हँसता हुआ देख सकती थी। क्या कोई सोच सकता है कि एक राष्ट्र की असुरक्षा के नाम पर अस्पतालों, स्कूलों और शिविरों को भी मिटा दिया जाए? क्या आतंक का जवाब आतंक ही होता है?
यह लड़ाई अब सीमाओं की नहीं रही। यह लड़ाई इंसानियत बनाम बर्बरता की है — और बर्बरता जीत रही है।
ग़ाज़ा: जहां अब बच्चों की हँसी नहीं सुनाई देती
ग़ाज़ा की गलियों में अब कोई ‘अब्बू’ कह कर दौड़ता बच्चा नहीं है। वहाँ अब सिर्फ उन माँओं की सिसकियाँ हैं, जो हर बम के बाद कफ़न ढूंढने निकलती हैं। वहाँ अब वे शिक्षक नहीं हैं जो अ आ इ ई पढ़ाते थे — वहाँ अब पत्रकारों की आवाज़ दबा दी जाती है, और शांति की उम्मीद हर विस्फोट के साथ दफन होती जाती है।
यह सिर्फ एक युद्ध नहीं — यह सदी की सबसे बड़ी नैतिक पराजय है।
दुनिया खामोश है, लेकिन ज़मीर?
दुनिया तमाशबीन है। अंतर्राष्ट्रीय संगठन कागज़ों पर निंदा करते हैं, राजनेता ‘राजनयिक भाषा’ में संवेदना जताते हैं — लेकिन बच्चों की लाशें क्या शब्दों से उठाई जाती हैं?
ग़ाज़ा में मरते हर बच्चे के साथ संयुक्त राष्ट्र की चुप्पी, मानवाधिकार संगठनों की निष्क्रियता, और तथाकथित विकसित देशों की दोहरी नीतियाँ भी मर रही हैं।
अगर यह युद्ध अपराध नहीं है — तो फिर युद्ध अपराध क्या होता है?
जब तक ग़ाज़ा जलेगा, इतिहास काँपता रहेगा
आज ग़ाज़ा जल रहा है। पर कल जब इतिहास लिखा जाएगा, तो उसमें इज़राइल की मिसाइलें नहीं — एक बच्ची की टूटी गुड़िया दर्ज होगी। वो बच्ची, जो किसी राष्ट्र की दुश्मन नहीं थी, पर फिर भी मारी गई।
वो इतिहास कहेगा कि दुनिया ने एक युद्ध देखा — जिसमें खिलौने हार गए, और बंदूकें जीत गईं।
पर वो यह भी कहेगा — कि इंसानियत ने उस दिन आखिरी साँस ली।
और अब… सवाल फिर वही है:
“क्या कोई बताएगा उस घायल बच्चे को कि उसकी बहन ने कौन सा अपराध किया था?
या हम सब मिलकर एक गुड़िया की मौत पर भी खामोश रहेंगे?”