✍️ सैयद रिज़वान मुस्तफा की कलम से
कभी-कभी कुछ शख्सियतें इतनी ख़ामोशी से ज़िंदगी में दाख़िल होती हैं कि हमें एहसास ही नहीं होता कि वे कब हमारे दिल का हिस्सा बन गईं — और फिर जब वो रुख़्सत होती हैं, तो सन्नाटा बोल उठता है।
मौलाना डॉ. सैयद मोहम्मद असगर भी ऐसी ही एक शख्सियत थे — इल्म, सादगी और इंसानियत की जिंदा मिसाल।
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के शिया थियोलॉजी विभाग के चेयरमैन, मौलाना असगर साहब के इंतकाल की खबर जैसे ही आई, अलीगढ़ की फिज़ा में सन्नाटा उतर गया। यह सिर्फ़ एक शिक्षक का नहीं, बल्कि एक इल्मी दौर के ख़त्म होने का एहसास था।
🌿 मिलनसार तबियत और अदबी शख्सियत
मौलाना असगर साहब से हर बातचीत में एक सुकून मिलता था — जैसे कोई पुराने ज़माने का इल्मी दौर फिर से लौट आया हो।
वे न सिर्फ़ एक मज़हबी स्कॉलर थे, बल्कि एक बेहतरीन इंसान, हौसला देने वाले, और सबसे अहम — मिलनसार तबियत के मालिक।
तहलका टुडे और निदा टीवी जैसे प्लेटफॉर्म्स को वे न सिर्फ़ पढ़ते और देखते थे, बल्कि उनकी सराहना भी खुलकर करते थे।
अक्सर कॉल या मैसेज में कहा करते थे —
“रिज़वान साहब, आपकी कलम में जो दर्द और सच्चाई है, वो आजकल के लिखने वालों में बहुत कम है।”
यह जुमला आज भी कानों में गूंजता है। उनकी बातों में इल्म का वजन होता था, मगर अंदाज़ में एक अपनापन — वो अपनापन जो अब कम ही लोगों में रह गया है।
इल्म के समंदर और तालीम के सिपाही
मौलाना असगर साहब का ज़िक्र सिर्फ़ एक प्रोफेसर के तौर पर नहीं किया जा सकता।
उन्होंने 1995 से अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाया, और हज़ारों तलबा (students) को उस रास्ते पर डाला जहाँ दीन और अक़्ल का मेल होता है।
क़ुम (ईरान) में इज्तेहाद की तालीम पाने वाले, सुल्तानुल मदारिस और मदरसा तुल वाइज़ीन लखनऊ जैसे मरकज़ों से गुज़रने वाले इस शख्स ने अपने इल्म को सिर्फ़ किताबों तक नहीं रखा — बल्कि उसे ज़िंदगी का हुस्न बना दिया।
उनकी किताबें — “दुआ-ए-मुज़्तर”, “जबत-ए-दुआ”, “दुआ-ए-नुदबा” — सिर्फ़ इबादत नहीं सिखातीं, बल्कि इबादत का फ़लसफ़ा भी बयान करती हैं।
उनके लेख “हुक़ूक़-ए-बशर और लख़्त-ए-दिल-ए-पैग़ंबर” और “वक़्फ़ और उसका मोहतर्म तसव्वुर” में आज भी वो रोशनी झलकती है जो समाज को समझदारी और तहज़ीब की तरफ़ बुलाती है।
अलीगढ़ जाने की तमन्ना… जो अब रह गई तमन्ना ही
अक्सर मौलाना साहब से बात होती थी।
कहते थे,
“रिज़वान भाई, कभी अलीगढ़ ज़रूर आइएगा… यूनिवर्सिटी की फिज़ा में अब भी इल्म की ख़ुशबू बाकी है।”
हर बार सोचता था — “इंशा अल्लाह, ज़रूर।”
मगर कौन जानता था कि वो मुलाक़ात अब मुक़द्दर नहीं रही।
अब अलीगढ़ जाने की तमन्ना उनके बिना अधूरी लगती है।
कभी-कभी सोचता हूँ, शायद अब वहाँ की हवा में उनकी आवाज़ घुली होगी,
क्लासरूम के किसी कोने में उनका मुस्कुराता चेहरा होगा,
और किसी रिसर्च स्कॉलर की नोटबुक में अब भी उनकी लिखी लाइनें ज़िंदा होंगी।
एक हौसला देने वाले इंसान
हर नई सोच, हर लिखे हुए अल्फ़ाज़ पर वो हमेशा हौसला बढ़ाते थे।
कभी कहा करते —
“रिज़वान साहब, लिखते रहिए, यही सबसे बड़ा जिहाद है।”
उनका यह कहना सिर्फ़ तारीफ़ नहीं, एक जिम्मेदारी थी।
उन्होंने हमेशा यह यकीन दिलाया कि कलम की तासीर सिर्फ़ लिखने में नहीं, बल्कि ज़मीर को जगाने में है।
रुख़्सती का सन्नाटा
आज जब उनकी रुख़्सती की ख़बर आई, दिल ने कहा —
“अलीगढ़ का एक दरख़्त गिर गया…”
जिसकी छांव में कितनी पीढ़ियाँ इल्म की ठंडक पाती रहीं।
मगर ऐसे लोग सचमुच मरते नहीं —
उनकी किताबें, उनके खुत्बे, उनके लफ़्ज़, उनकी मोहब्बत —
सब कुछ अब भी सांस ले रहे हैं,
बस वो खुद अब एक बेहतर जहां में चले गए हैं।
जिंदगी कब सफ़र,
जन्म: 10 जनवरी 1965,
पिता का नाम: जनाब एस. तफ़ज्ज़ुल हुसैन,
स्थायी पता: गाँव दरवन, पोस्ट खेमा पुर, ज़िला अम्बेडकर नगर (उत्तर प्रदेश),
शिक्षा:
Ph.D. (इस्लामिक थियोलॉजी, एएमयू, 2003),
M.Phil (शिया थियोलॉजी, एएमयू),
Ijtihad (फ़िक़्ह व उसूल, क़ुम, ईरान),
Waiz (मदरसा तुल वाइज़ीन, लखनऊ, 1986),
Sadrul Afazil (सुल्तानुल मदारिस, लखनऊ, 1985),
Fazil-e-Adab (इलाहाबाद बोर्ड, 1985),
Sanadul Afazil (फ़िक़्ह व तफ़्सीर, 1984),
Maulvi (अरबी-फ़ारसी, 1977),
तदरीसी खिदमात,
लेक्चरर, विभाग शिया थियोलॉजी, एएमयू (1995–2025),
तीस वर्षों का बेदाग़ शिक्षण अनुभव,
वासीका अरबी कॉलेज, फ़ैज़ाबाद (3 वर्ष),
मदरसा तुल वाइज़ीन, लखनऊ (5 वर्ष),
असिस्टेंट एडिटर, इदारा-ए-इस्लाह, लखनऊ (2 वर्ष),
उन्होंने सिलेबस, परीक्षा, एडमिशन और इंटरनल एक्टिविटीज़ में अहम भूमिका निभाई,
उनकी तालीम किताबों से आगे बढ़कर ज़िंदगी का सलीक़ा सिखाती थी,
इल्मी और रिसर्च सेवाएं,
Ph.D. और M.Phil. दोनों शिया थियोलॉजी पर केंद्रित,
UGC ओरिएंटेशन कोर्स (2001),
रिफ्रेशर कोर्स (2002, 2008),
मदरसा तुल वाइज़ीन लखनऊ में 5 साल का शोध अनुभव,
प्रकाशित पुस्तकें,
Tasawwur-e-Ibadat (1998),
Zakeeraye Prashnottar (तीन भाग, इस्लाम इतिहास व सीरत),
Dua-e-Muztar,
Jabat-e-Dua,
Dua-e-Nudbah,
Full Course of Theology (+2, B.A.),
Translation Works: Tarjuma Diniyat, Diniyat ki Doosri Kitab,
प्रमुख लेख,
“Huqooq-e-Bashar aur Lakhte Dil-e-Paighambar,”
“Waqf aur uska Mohtaram Tasawwur,”
“Mard-e-Aahan,”
“Nezam-e-Adl,”
“Nabi Akheruzzaman (s.a.w.w.) Bahaisiyat Da’ee-e-Insaniyat,”
“Harche Hast Zainab” (इस्लाह, 1986),
“Khadijatul Kubra” (इस्लाह, 2009),
हर लेख में फ़िक्र, दर्द और ज़मीर की गर्मी महसूस होती थी,
सेमिनार और कॉन्फ़्रेंसेज़,
Seminar on Imam Sadiq (Delhi, 1994),
Paper on Nahjul Balagha aur Huqooq-e-Bashar (AMU, 2011),
International Seminar on World Religions (AMU, 2013),
National Seminar on Media and Islam (AMU, 2019),
Islamic Unity Workshop (AMU, UISIA),
अल्फ़ाज़-ए-ख़ुलूस
मौलाना सैयद मोहम्मद असगर का जाना एक ऐसा नुकसान है जिसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता।
वो इल्म और इंसानियत के उस संगम के प्रतीक थे,
जो न किताबों में मिलता है न तारीफ़ों में —
बस दिल के एहसासों में दर्ज़ हो जाता है।
दुआ
ऐ खुदा,
मौलाना असगर साहब की मग़फ़िरत फ़रमा,मोहम्मद वाले मोहम्मद के सदके में उन्हें अपने करम से जन्नत-उल-फ़िरदौस में जगह अता कर।




