तेल अवीव और हाइफा के मलबे तले दबा इज़राइल का अहंकार: लेबर संकट, भारतीय मजदूरों की बढ़ती मांग और यहूदी समाज की जागती संवेदनाएं

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तहलका टुडे इंटरनेशनल डेस्क/सैयद रिज़वान मुस्तफ़ा

इज़राइल, जो अब तक खुद को एक अजेय सैन्य ताक़त और टेक्नोलॉजी का सिरमौर मानता था, आज उसी ज़मीन पर गिरे मलबे को हटाने के लिए विदेशी मजदूरों की तलाश में है। ईरान द्वारा किए गए जवाबी हमलों ने न केवल उसके सैन्य प्रतिष्ठानों को तहस-नहस किया बल्कि उसके समाज के घमंड, व्यवस्था और तथाकथित श्रेष्ठता को भी मलबे में बदल दिया। इस मलबे के नीचे सिर्फ ईंट-पत्थर नहीं दबे, बल्कि एक पूरी सोच, एक रणनीति, और एक दोहरे मापदंड वाली नीति भी दफन हो गई है।

ईरानी हमलों के बाद तबाही का मंज़र

“ऑपरेशन ट्रू प्रॉमिस” के तीसरे चरण में ईरानी मिसाइलों और ड्रोन ने इज़राइली हवाई सुरक्षा को चकनाचूर कर दिया। तेल अवीव और हाइफा जैसे आधुनिक शहर अब युद्धग्रस्त क्षेत्रों में तब्दील हो चुके हैं। हवाई अड्डे, ऊर्जा संयंत्र, और बहुमंज़िला इमारतें या तो राख हो चुकी हैं या गिरने की कगार पर हैं। इन सबके बीच एक सवाल पूरे इज़राइल को परेशान कर रहा है: अब यह सब साफ़ कौन करेगा?

लेबर की शॉर्टेज: भविष्य की महामारी

इज़राइली समाज की एक विडंबना यह है कि वहां शारीरिक श्रम को हेय दृष्टि से देखा जाता है। यही कारण है कि वहां की पूरी निर्माण और मेहनत आधारित अर्थव्यवस्था विदेशी मजदूरों पर निर्भर थी। आज जब इज़राइल को कम से कम 10,000 मजदूरों की आवश्यकता है, तब वह भारत, फिलीपींस, नेपाल और थाईलैंड जैसे देशों की ओर देख रहा है।

भारत, जो दुनिया का सबसे बड़ा श्रमबल प्रदान करने वाला देश है, उसके मजदूरों को अब “तेल अवीव का तारणहार” समझा जा रहा है।

गुरबत का फ़ायदा उठाने वाला नेटवर्क बर्बाद

इज़राइल ने वर्षों तक अफ्रीकी, फिलीपीनो, नेपाली और अन्य ग़रीब देशों के लोगों की गरीबी और मजबूरी का फायदा उठाकर उन्हें अपने सैन्य, सुरक्षा और निर्माण तंत्र में शामिल किया। इन लोगों को बहुत कम सुविधाओं के साथ सीमावर्ती क्षेत्रों में तैनात किया गया, जहां जान का खतरा लगातार बना रहता था।

यह तथाकथित “लेबर-मिलिट्री नेटवर्क” अब पूरी तरह तहस-नहस हो चुका है।
जिन विदेशी युवाओं को ज़रा-ज़रा से पैसे में गाज़ा या लेबनान की सीमाओं पर बंदूक थमाई जाती थी, आज वही देश अपनी सीमाएं नहीं संभाल पा रहा। यह एक ऐतिहासिक और नैतिक पराजय है।

भोग-विलास से भूख-प्यास तक: इज़राइली समाज का आत्ममंथन

जो समाज यश, यौन-विलास और आराम को जीवन का लक्ष्य मान बैठा था, वही अब बिजली, पानी, रोटी और दवा के लिए तरस रहा है।
गाज़ा की संकरी गलियों में जिस पीड़ा को वर्षों तक इज़राइल ने अनदेखा किया, आज वह पीड़ा तेल अवीव की सड़कों पर चीखती नजर आ रही है।
बंकरों में छिपे हुए बच्चे, स्कूल से वंचित होती पढ़ाई, और बंद अस्पताल — यह सब आज इज़राइली समाज को ग़ाज़ा की मासूमियत की याद दिला रहे हैं।

भारतीय मजदूर: न केवल श्रमिक, बल्कि संवेदना के वाहक

भारत से जाने वाले मजदूर सिर्फ मज़दूरी नहीं करेंगे, वे एक संदेश लेकर जाएंगे —
“हम तुम्हारी मदद इंसानियत के नाम पर कर रहे हैं, न कि तुम्हारे घमंड को फिर से खड़ा करने के लिए।”
उनके हाथों में फावड़ा ज़रूर होगा, पर दिल में करुणा और आँखों में एक सवाल भी होगा:
“क्या अब तुम्हें समझ आया कि जुल्म सहने वाले कैसे जीते हैं?”

दुनिया के लिए चेतावनी — दमन की नींव पर टिके महल हमेशा गिरते हैं

इज़राइल को अब समझ आ रहा है कि दुनिया की असली ताक़त मिसाइलें नहीं, बल्कि इंसानियत, श्रम और संयम है।
ग़ाज़ा, सीरिया, लेबनान और ईरान पर दमन करने की जो आदत थी, वह अब खुद इज़राइल को खा रही है।
आज जब मलबा हर तरफ़ है, तो दुनिया को याद रखना चाहिए —
“जो दूसरों के घर जलाता है, उसका अपना आँगन एक दिन खुद राख हो जाता है।”

तेल अवीव और हाइफा की बर्बादी सिर्फ युद्ध की कहानी नहीं है — यह उस ज़ुल्म, घमंड और भोगवाद की पराजय है, जिसने इंसानियत को हाशिए पर डाल दिया था।
आज मजदूरों की ज़रूरत है — वही मजदूर, जिनका इज़राइल ने कभी मज़ाक उड़ाया, जिनकी ज़रूरत को व्यापार समझा, और जिनकी मजबूरी को अनुबंधों में बाँध दिया।
पर अब वही मजदूर इज़राइल को फिर से खड़ा करेंगे —
पर शर्त ये है कि वो पहले झुकना सीखे — इंसानियत के सामने।

✍️ लेखक:
सैयद रिज़वान मुस्तफा
(एडिटर तहलका टुडे,स्वतंत्र टिप्पणीकार एवं सामाजिक पर्यवेक्षक – जो मलबे में भी नैतिकता की कहानी ढूँढ़ लेते हैं)

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