कित्तूर की मिट्टी से उठी परवल की इंकलाबी खुशबू — अब ईरान की सरज़मीं पर दिखेगा हिंदुस्तानी जैविक क्रांति का असर

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वकार मेहदी, आदिल काज़मी और डॉ. रेहान काज़मी की मेहनत रंग लाने को तैयार, जल्द होगा परवल का विदेशों में निर्यात

हसनैन मुस्तफा | ख़ास रिपोर्ट

बाराबंकी (कित्तूर)।
किसी ज़मीन की पहचान उसकी उपज से होती है, लेकिन जब मिट्टी उसूलों, इरादों और इंकलाब से लिपटी हो, तब वहां उगने वाली फसल सिर्फ पेट नहीं, पहचान भी भरती है।
बाराबंकी के कित्तूर गांव की सरज़मीं पर उग रहा एक छोटा सा परवल, अब ईरान जैसे इस्लामी मुल्कों में हिंदुस्तानी जैविक खेती की नुमाइंदगी करने जा रहा है।

इस बदलाव के केंद्र में हैं तीन बेहतरीन नाम — किसान वकार मेहदी, युवा नवप्रवर्तक आदिल काज़मी, और वैज्ञानिक मार्गदर्शक डॉ. रेहान काज़मी। तीनों ने मिलकर एक ऐसा कारनामा अंजाम दिया है, जो आने वाले वक़्त में बाराबंकी की तक़दीर बदल सकता है।


ख़ुमैनी की क्रांति से प्रेरित, खेती को बनाया मिशन

इमाम खुमैनी ने कहा था: “हम अपनी रोटी खुद कमाएंगे, अपनी ज़मीन पर झुककर इंकलाब उगाएंगे।”
इसी सोच से प्रेरित होकर वकार मेहदी ने खेती को एक मुहिम बना दिया — स्वाभिमान, स्वदेशी और सदाकत का संगम।

“हमने तय किया कि खेती अब केवल आजीविका नहीं, इबादत होगी। और जब नियत पाक हो, तो मिट्टी भी वफा करती है।”
वकार मेहदी


आदिल काज़मी: आधुनिक सोच, परंपरागत जड़ों से जुड़ा किसान

आदिल काज़मी का मानना है कि युवा अगर खेती में कदम रखे और उसे टेक्नोलॉजी से जोड़ दे, तो गांव की शक्ल बदल सकती है। उन्होंने मिट्टी की जांच, सिंचाई की आधुनिक प्रणाली, और ऑर्गेनिक खाद के ज़रिए परवल को अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बना दिया।

“कित्तूर का परवल अब केवल स्वाद नहीं, एक स्टेटमेंट है — कि गांव पीछे नहीं हैं, बस मौका चाहिए।”


डॉ. रेहान काज़मी: विज्ञान और खेती का सेतु

डॉ. रेहान काज़मी, जो कृषि विज्ञान में विशेष रुचि रखते हैं, इस मिशन के ‘ब्रेन’ हैं। उन्होंने परवल की शेल्फ लाइफ बढ़ाने, फसल की रोग प्रतिरोधक क्षमता, और प्राकृतिक उत्पादों से कीटनाशक नियंत्रण पर गहरी रिसर्च की।

उनकी कोशिशों से अब कित्तूर का परवल बगैर किसी केमिकल के इतना मजबूत हो गया है कि वह विदेशी मानकों पर खरा उतर सके


भारत में परवल का उत्पादन और एक्सपोर्ट: एक नजर

भारत में परवल का उत्पादन मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और असम में होता है।
यह सब्ज़ी अब यूएई, कुवैत, कतर, सऊदी अरब, ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, सिंगापुर, मलेशिया और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों को निर्यात की जाती है।

अब इस सूची में ईरान को जोड़ने की तैयारी है — जहां ‘हिंदुस्तानी जैविक खेती’ की मिसाल पेश करेगा “कित्तूरी परवल”


ईरान क्यों?

ईरान में हल्की, पचने में आसान और जैविक सब्ज़ियों की मांग तेजी से बढ़ रही है। वहां के लोग भारत की सब्जियों के स्वाद और गुणवत्ता को पसंद करते हैं।
कित्तूर का परवल, जो बगैर रसायन, पूरी तरह जैविक, और खालिस मेहनत से पैदा होता है — वहां की ज़रूरतों को बखूबी पूरा कर सकता है।

“हम चाहते हैं कि कित्तूर की मिट्टी की खुशबू ईरान की हवा में घुले, और वहां के लोग जानें कि हिंदुस्तान की खेती में कितना ईमान और हुनर है।”
डॉ. रेहान काज़मी


कित्तूर: एक गांव जो बना उम्मीद का प्रतीक

कित्तूर अब सिर्फ अकीदत की नहीं, कृषि नवाचार और आत्मनिर्भरता की नई राजधानी बनता जा रहा है।
यहां के किसान अब दूसरों के भरोसे नहीं, अपने हुनर और उसूलों से बदलाव की राह पर हैं।

वकार मेहदी, आदिल काज़मी और डॉ. रेहान काज़मी जैसे लोग इस ज़मीन पर एक ऐसी कहानी लिख रहे हैं, जो आने वाली नस्लों को बताएगी कि “अगर इरादे पाक हों, तो हल सबसे बड़ा हथियार बन जाता है।”


 परवल, एक पैग़ाम

कित्तूरी परवल अब कोई मामूली फसल नहीं, बल्कि यह उस गांव का पैग़ाम है जो कह रहा है:
हमने ज़मीन को बोया नहीं, जिया है… और अब वो रंग लाएगी, पूरी दुनिया देखेगी।

 

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