इस्लाम और इंसानियत की खिदमत में अपनी पूरी ज़िंदगी गुजारने वाले मौलाना सैयद कल्बे आबिद नकवी साहब क़िब्ला का नाम भारतीय धार्मिक और सामाजिक इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। उनकी शख्सियत इस बात का जीता-जागता सबूत है कि मज़हब के उसूलों का पालन करते हुए भी इंसानियत और सामुदायिक इत्तेहाद को प्राथमिकता दी जा सकती है। लखनऊ से ताल्लुक रखने वाले मौलाना कल्बे आबिद साहब ने दीनी इल्म, सामाजिक सेवा और सामुदायिक एकता के क्षेत्र में जो योगदान दिया, वह आज भी प्रेरणास्रोत है।
खानदान-ए-इज्तेहाद का रौशन सितारा
मौलाना कल्बे आबिद साहब का संबंध खानदान-ए-इज्तेहाद से था, जो इस्लामी शिक्षा और ज्ञान का केंद्र रहा है। उनके दादा, सैयद दिलदार अली गुफ़रानमाब, भारत में इज्तेहाद के संस्थापक के रूप में जाने जाते हैं। उनके वालिद मौलाना सैयद कल्बे हुसैन और दादा मौलाना सैयद अका हसन भी अपने समय के प्रतिष्ठित आलिम और इस्लामी शिक्षक थे।
उनके बेटे, मौलाना कल्बे जवाद साहब, ने उनकी विरासत को आगे बढ़ाते हुए वैश्विक स्तर पर इस्लामी इल्म और इंसानियत का परचम लहराया। मौलाना जवाद साहब ने ईरान के क़ुम शहर में 12 साल तक दीनी शिक्षा प्राप्त की और आज भी पूरी दुनिया में उनकी दीनी इल्म और नेतृत्व की मिसाल दी जाती है।
शिक्षा और इंसानियत की खिदमत
मौलाना कल्बे आबिद साहब की मजलिसें और उनके खुतबे न केवल धार्मिक थे, बल्कि उनमें समाज सुधार, इंसानियत और इत्तेहाद का पैग़ाम भी शामिल होता था। वह एक ऐसे आलिम थे, जिन्होंने इस्लामिक उसूलों को आधुनिक समाज के परिप्रेक्ष्य में व्याख्या कर पेश किया। उन्होंने मज़हबी एकता के लिए काम किया और हर मज़हब और समुदाय के लोगों के दिलों में जगह बनाई।
उनकी शख्सियत में विनम्रता, मोहब्बत और सेवा का भाव था। उन्होंने अपने खुतबों और मजलिसों के ज़रिए हर तबके के लोगों को आपसी भाईचारे और सहिष्णुता का संदेश दिया।
13 दिसंबर 1986: एक दर्दनाक दिन
13 दिसंबर 1986 का दिन इस्लामी इतिहास में एक दर्दनाक दिन के रूप में दर्ज है। उस दिन, मौलाना कल्बे आबिद साहब इलाहाबाद में एक मजलिस पढ़ने के लिए जा रहे थे, जब उनकी गाड़ी एक भयावह हादसे का शिकार हो गई। इस हादसे में उनकी मौत हो गई। उनकी वफात ने न केवल शिया समुदाय को गमज़दा किया, बल्कि हर मज़हब और हर वर्ग के लोगों को झकझोर कर रख दिया।
भारत की सबसे बड़ी शोक सभा
उनकी मौत के बाद, लखनऊ में उनकी तदफीन के दौरान भारत की सबसे बड़ी शोक सभा हुई। यह सभा इस बात का प्रतीक थी कि उनकी मोहब्बत और इंसानियत का पैग़ाम मज़हबी दीवारों को पार कर चुका था। उनकी अंतिम यात्रा में हर मज़हब के लोग शामिल हुए।
उनकी तदफीन के बाद, मौलाना डॉ. कल्बे सादिक़ साहब ने उनके बेटे मौलाना कल्बे जवाद साहब के सिर पर पगड़ी बांधकर यह संदेश दिया कि खानदान-ए-इज्तेहाद का सिलसिला जारी रहेगा।
मौलाना और मेरा रिश्ता: एक यादगार जुड़ाव
मैं, सैयद रिजवान मुस्तफा रिजवी नगरामी, खुद को खुशकिस्मत मानता हूं कि मेरा रिश्ता मौलाना सैयद कल्बे आबिद नकवी साहब से जुड़ा।मेरे बाबा जान, मौलाना सैयद हसन अब्बास रिजवी नगरामी, उनके साथ पढ़े और उनसे इल्म हासिल किया। यह रिश्ता सिर्फ़ किताबों या मजलिसों तक सीमित नहीं था, बल्कि यह उस ख़िदमत, उस इंसानियत के सबक का सिलसिला था, जिसे मौलाना ने अपनी जिंदगी में अमल के ज़रिए पेश किया।
1985 का वह साल आज भी मेरी यादों में ताजा है, जब मैंने शिया डिग्री कॉलेज में बीएससी में दाखिला लिया। बाराबंकी से लखनऊ तक का सफर मेरा रोज़मर्रा का हिस्सा बन चुका था। लेकिन 13 दिसंबर 1986 का वह दिन जैसे मेरी जिंदगी के सफर में एक ठहराव लेकर आया। मौलाना के इंतकाल की खबर सुनकर मैं बेचैन हो उठा। बिना कुछ सोचे, बिना किसी वाहन का इंतजार किए, मैंने अपनी साइकिल उठाई और बाराबंकी से लखनऊ के लिए निकल पड़ा। यह सफर सिर्फ़ लखनऊ तक का नहीं था, बल्कि मेरे दिल में मौलाना के प्रति असीम मोहब्बत और उनके इंसानी उसूलों की कद्र का इज़हार था।
उनकी याद में 40वीं अंजुमन अब्बासिया नगराम की ओर से मैंने एक पर्चा जारी किया, जिसमें उनके पैगाम और उनकी शिक्षा पर अमल करने की बात कही गई थी। जब यह पर्चा इस्लामी तालीम के एडिटर रहे जमील शम्सी भाई तक पहुंचा, तो उन्होंने इसकी भरपूर सराहना की। यह वह लम्हा था, जब अंजुमन-ए-अब्बासिया की मासिक पत्रिका के नशरियात का सिलसिला शुरू हुआ। वह पत्रिका सिर्फ़ कागज़ पर लिखे शब्द नहीं थे, बल्कि मौलाना की तालीम और उनके इंसानियत के पैगाम का एक सजीव दस्तावेज़ थी।जिसने कई सालों तक लोगों को उनके और इमाम खुमैनी,अयातुल्लाह खुई,ख़तीबे आजम मौलाना गुलाम अस्करी साहब,अल्लामा ज़ीशान हैदर जवादी,समेत कई उलेमाओं के विचारों और शिक्षाओं से रूबरू कराया।
मौलाना की विरासत और हमारी जिम्मेदारी
मौलाना कल्बे आबिद नकवी साहब का जीवन और उनकी शिक्षा हमें यह सिखाती है कि इंसानियत, मोहब्बत और इत्तेहाद सबसे ऊपर हैं। उनकी तालीम और उनके अमल से हमें यह सबक मिलता है कि मज़हब की दीवारों को पार कर इंसानियत की खिदमत करना ही असली मकसद है।
उनकी याद में हमारा कर्तव्य
आज, उनकी पुण्यतिथि पर, मैं आप सबसे गुजारिश करता हूं कि सुरह-ए-फातिहा पढ़कर उनकी रूह को सवाब अता करें। आइए, हम सब मिलकर उनके उसूलों और उनकी दी गई तालीम पर अमल करने का वादा करें।
मौलाना कल्बे आबिद नकवी साहब की शख्सियत और उनके उसूल हमेशा हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत बने रहेंगे।