तहलका टुडे टीम
“हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और!”
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और!”
जब सीनियर सहाफी मौलाना आदिल फ़राज़ साहब दिल्ली के निज़ामुद्दीन इलाके में मिर्ज़ा ग़ालिब की मजार पर पहुंचे, तो जो मंजर उन्होंने देखा, वह सिर्फ अफसोसनाक नहीं बल्कि हमारी तहज़ीब और अदब के पतन का जीता-जागता सबूत था। जिस शायर की कलम ने उर्दू अदब को बुलंदियों तक पहुंचाया, आज उसी की मजार पर बेबसी और बेकसी के साए थे।
मजार के चारों ओर गंदगी फैली हुई थी। कहीं टूटी हुई दीवारें थीं, तो कहीं लापरवाही की धूल जमी थी। लेकिन सबसे ज्यादा तकलीफदेह नज़ारा वह था, जहाँ कुछ लोग जुआ खेल रहे थे, तो कुछ नशे में धुत पड़े थे। गांजा, भांग, मार्फीन और सिगरेट का धुआं उस मुकद्दस जगह की हवा में जहर घोल रहा था। ऐसा लगा मानो ग़ालिब की रूह आसमान से यह सब देख रही हो और अफसोस कर रही हो कि उसकी कब्र को भी सुकून मयस्सर नहीं।
ग़ालिब की कलम से उनके हालात का बयान
ग़ालिब ने खुद अपनी ज़िंदगी में मुफलिसी और बेबसी देखी थी। शायद उन्हें अपने बाद के हालात का अंदाजा पहले ही हो गया था, तभी उन्होंने लिखा था—
“न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता?”
आज अगर ग़ालिब होते और अपनी मजार की यह हालत देखते, तो शायद यही कहते कि उन्हें पहचानने वाले बहुत हैं, मगर उनकी यादों को संजोने वाला कोई नहीं।
“हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।”
ग़ालिब की ख्वाहिशों में से एक यह भी रही होगी कि उनकी कब्र पर आने वाले लोग उनकी शायरी से कुछ सीखें, उनके एहसास को महसूस करें, लेकिन हुआ इसका उलट।
बेपरवाह समाज और ग़ालिब की बेनाम विरासत
जिस इंसान ने उर्दू अदब को नई ऊंचाइयां दीं, जिसने शायरी में इश्क़ और फकीरी को एक नई परिभाषा दी, वह अपने जीते-जी भी मुफलिसी में रहा और मरने के बाद भी उसकी कब्र पर कोई चिराग जलाने वाला नहीं।
“हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
दिल के खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख्याल अच्छा है!”
ग़ालिब ने शायद पहले ही जान लिया था कि मरने के बाद भी उनकी यादें बस किताबों तक सिमट जाएंगी, लेकिन उनके नाम पर कोई उनकी मजार की फिक्र नहीं करेगा।
ग़ालिब की कब्र: हमारी तहज़ीब का आईना
ग़ालिब की मजार पर जो कुछ हो रहा है, वह सिर्फ एक कब्र की बदहाली नहीं, बल्कि हमारे समाज की अदबी और सांस्कृतिक बेपरवाही का प्रमाण है। सरकारें आएंगी और जाएंगी, लेकिन क्या हम खुद अपनी तहज़ीब और अपनी धरोहर की जिम्मेदारी नहीं ले सकते?
ग़ालिब ने एक बार लिखा था—
“रगों में दौड़ने फिरने के हम नहीं कायल,
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है?”
आज अगर हमारे दिलों में ग़ालिब की इज्जत के लिए कोई दर्द नहीं उठता, तो यह हमारी तहज़ीबी मौत से कम नहीं।
अब भी वक्त है: ग़ालिब की मजार को बचाइए
ग़ालिब की मजार की बेबसी हमारी आंखें खोलने के लिए काफी है। अगर हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाना चाहते हैं, तो हमें इस ऐतिहासिक धरोहर की हिफाजत करनी होगी। यह सिर्फ एक शायर की मजार नहीं, बल्कि उर्दू अदब की आत्मा का सुकून है।
अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम ग़ालिब की इस पुकार को सुनते हैं या नहीं—
“बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना,
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना!”
क्या हम ग़ालिब की मजार को उसका हक लौटाएंगे? या फिर इसे भी वक्त की धूल में खो जाने देंगे? फैसला हमें करना है!