मस्जिद के ताक चूमती, जालियों में ताला डालती, खत बांधती आवाम: इस शिर्क का जिम्मेदार कौन? उलेमा या खुद मोमिनीन?

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मस्जिद के ताक चूमती, जालियों के ताला डालती, खत बांधती आवाम: इस शिर्क का जिम्मेदार कौन? उलेमा या खुद मोमिनीन?

तहलका टुडे टीम/सैयद रिज़वान मुस्तफ़ा

इस्लाम में इबादत और श्रद्धा का सही तरीका कुरान और अहले बैत (इमामों) के उपदेशों से तय होता है। मस्जिदों में ताक चूमना, जालियों के ताले डालना, और खत बांधने जैसी रस्में आजकल समाज में प्रचलित हो गई हैं। हालांकि ये रस्में इस्लाम के असल उसूलों के खिलाफ हैं, लेकिन फिर भी लोग इन परंपराओं को धार्मिक श्रद्धा के रूप में मानते हैं। इस आर्टिकल में हम इन रस्मों की तफ्सील से तौसीफ करेंगे और देखेंगे कि कुरान, नहजुल बलागा, इमामों के अक़वाल, और समकालीन फतवों के नजरिए से इनकी क्या अहमियत है। इसके साथ ही हम ये भी जानेंगे कि इन रस्मों के लिए जिम्मेदार कौन है—उलेमा या खुद मोमिनीन।

 

1. कुरान का नजरिया

कुरान में साफ़ तौर पर कहा गया है कि इबादत और श्रद्धा सिर्फ़ अल्लाह के लिए होनी चाहिए। किसी भी शख्स, चीज़, या जगह को अल्लाह के बराबर रखना शिर्क (अल्लाह के साथ साझेदारी) है, जो इस्लाम में सबसे बड़ा गुनाह है।

सूरह अल-इख़लास (112:1-4):

> “कहो, वह अल्लाह एक है। अल्लाह बे-नियाज़ है। न उसकी कोई औलाद है और न वह किसी का औलाद है। और उसका कोई समकक्ष नहीं।”

इस आयत से ये साफ़ है कि इबादत सिर्फ़ अल्लाह के लिए होनी चाहिए, न कि किसी और के लिए।

सूरह अल-जिन्न (72:18):

> “मस्जिदें अल्लाह के लिए हैं, तो उसमें अल्लाह के साथ किसी और को न पुकारो।”

ये आयत ये साबित करती है कि मस्जिद का इज़्ज़त और सम्मान सिर्फ़ अल्लाह के लिए है, और किसी भी दूसरी चीज़ को वहां इबादत का स्थान देना इस्लाम में गलत माना जाता है।

कुरान के इन आयतों के मुताबिक, मस्जिद के ताक चूमना, जालियों में ताले डालना या खत बांधने जैसी रस्में शिर्क के करीब हो सकती हैं, और इनका इस्लाम में कोई जायज़ आधार नहीं है।

2. नहजुल बलागा का नजरिया

इमाम अली (अ.स.) ने नहजुल बलागा में इस्लामी हिदायतों और अंधविश्वास के खिलाफ कई अहम बातें कही हैं। उन्होंने कहा था कि अल्लाह के सिवा किसी और चीज़ को इबादत का स्थान नहीं दिया जा सकता।

ख़ुतबा 1:

> “लोगों की भक्ति तब तक सही नहीं हो सकती जब तक वे अल्लाह के प्रति अपनी सच्ची नीयत न रखें। अज्ञानता से पैदा होने वाले रीति-रिवाज भक्ति नहीं कहलाते।”

इमाम अली (अ.स.) ने यहां ये बताया कि जो रस्में इस्लामी उसूलों से मेल नहीं खातीं, वो असली भक्ति नहीं हो सकतीं।

ख़ुतबा 190:

> “जिन्होंने अपनी इबादत में भटकाव डाला, वे गुमराह हो गए। अल्लाह को छोड़कर किसी और चीज़ के प्रति झुकना उनका नुकसान है।”

इमाम अली (अ.स.) के इस कथन से ये साफ़ है कि जो लोग मस्जिदों की जालियों में ताले डालते हैं या ताक चूमते हैं, वे सही रास्ते से भटक रहे हैं, और ऐसा करना इस्लाम में नाजायज़ है।

3. इमामों के अक़वाल

इमामों ने हमेशा यही सिखाया कि इबादत सिर्फ़ अल्लाह के लिए होनी चाहिए और किसी भी चीज़ को इबादत का स्थान नहीं देना चाहिए।

इमाम जाफर सादिक़ (अ.स.):

> “हर वह काम जो अल्लाह के हुक्म से बाहर हो, वह बिदअत (गैर-इस्लामी प्रथा) है। और बिदअत करने वाले जहालत में हैं।”

इमाम जाफर सादिक़ (अ.स.) ने बिदअत (नई प्रथाओं) को नकारा है, जो इस्लामिक उसूलों से मेल नहीं खातीं। मस्जिदों में जालियों को ताला डालना और ताक चूमना इस्लाम की बुनियादी शिक्षाओं से मेल नहीं खाता।

इमाम अली रज़ा (अ.स.):

> “मस्जिद वह स्थान है जो अल्लाह की इबादत के लिए है, न कि किसी चीज़ की पूजा या आदर के लिए।”

इमाम अली रज़ा (अ.स.) ने मस्जिद का उद्देश्य साफ़ किया कि ये सिर्फ़ अल्लाह की इबादत के लिए है और इसे किसी अन्य उद्देश्य के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

4. आयतुल्लाह सिस्तानी और आयतुल्लाह खामेनई के फतवे

आयतुल्लाह सिस्तानी:

आयतुल्लाह सिस्तानी का कहना है कि मस्जिदों में किसी भी प्रकार की बिदअत को स्थान नहीं मिलना चाहिए। उन्होंने विशेष रूप से कहा कि मस्जिद के किसी भी हिस्से को इबादत का स्थान मानकर चूमना शरीअत में प्रमाणित नहीं है।

> “मस्जिद के किसी भाग को इबादत का स्थान मानकर चूमना शरीअत में प्रमाणित नहीं है। यह इस्लामिक शिक्षा से मेल नहीं खाता।”

आयतुल्लाह अली खामेनई:

आयतुल्लाह खामेनई ने भी इस्लामिक शिक्षाओं के अनुरूप इस बात पर जोर दिया कि मस्जिदों का सम्मान जरूरी है, लेकिन उन्हें किसी अन्य चीज़ की पूजा के लिए नहीं इस्तेमाल किया जा सकता।

> “मस्जिद का सम्मान जरूरी है, लेकिन इस सम्मान का मतलब यह नहीं है कि मस्जिद के हिस्सों को चूमने जैसी प्रथाएँ की जाएँ। यह व्यवहार शिर्क के करीब ले जा सकता है। मुसलमानों को अपनी इबादत के तरीके कुरान और अहले बैत की शिक्षाओं से लेने चाहिए।”

5. उलेमा और मोमिनीन की जिम्मेदारी

उलेमा की जिम्मेदारी:

उलेमा का मुख्य कर्तव्य है कि वे समाज में सही इस्लामी शिक्षा का प्रचार करें और इस प्रकार की गलत रस्मों से लोगों को बचाएं। उलेमा को चाहिए कि वे इन प्रथाओं के खिलाफ आवाज़ उठाएं और लोगों को कुरान, नहजुल बलागा, और इमामों के अक़वाल की सही समझ प्रदान करें।

मोमिनीन की जिम्मेदारी:

मोमिनीन (सामान्य लोग) को चाहिए कि वे अपनी धार्मिक भावनाओं को सही तरीके से समझें और इस्लाम की मूल शिक्षाओं का पालन करें। अंधविश्वास से बचने और समाज में इस्लामी शिक्षा के प्रचार में भाग लेने की जिम्मेदारी भी उनकी है। अगर मोमिनीन खुद सही रास्ते पर चलेंगे, तो वे समाज में बदलाव ला सकते हैं।

मस्जिद के ताक चूमने, जालियों के ताले डालने, और खत बांधने जैसी रस्में इस्लामिक उसूलों के खिलाफ हैं। कुरान, नहजुल बलागा, और इमामों के अक़वाल इन रस्मों को बिदअत और गुमराही मानते हैं। आयतुल्लाह सिस्तानी और खामेनई जैसे समकालीन मरजा-ए-तकलीद भी इन प्रथाओं को इस्लाम में गलत मानते हैं।

इन प्रथाओं के लिए जिम्मेदार उलेमा और मोमिनीन दोनों हैं। उलेमा का कर्तव्य है कि वे सही इस्लामी शिक्षा का प्रचार करें, जबकि मोमिनीन की जिम्मेदारी है कि वे सही रास्ते पर चलें और इन गलत प्रथाओं से बचें।

समाज में इस प्रकार की प्रथाओं को खत्म करने के लिए शिक्षा, जागरूकता, और उलेमा की ईमानदार कोशिशें जरूरी हैं। मस्जिदों और अन्य धार्मिक स्थानों को केवल अल्लाह की इबादत के लिए इस्तेमाल करना और कुरान और अहले बैत की शिक्षाओं को जीवन में उतारना इस्लाम की मूल भावना को साकार करने में मदद करेगा।

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